भक्ति एवं सामाजिक चेतना के प्रतीक संत रविदास

 भक्ति  एवं सामाजिक चेतना के प्रतीक संत रविदास 

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संत रविदास जी



 भारतीय समाज की उबड़ खाबड़ व गैर बराबर सामाजिक व्यवस्था के सुधार के लिए अनेक संत महापुरुषों ने अपना अनमोल योगदान दिया है।जब जातिवादी और वर्ण वादी व्यवस्था के चलते  समाज में ऊंच-नीच छुआछूत पाखंड और अमानवीय परंपराओं का बोलबाला  था तब विक्रम संवत 1482 कि माघ पूर्णिमा को वाराणसी मे संतोष दास के घर एक बालक माता कलसा देवी की कोख से पैदा हुआ जो आगे जाकर भारत के महान संत  रविदास के नाम से प्रसिद्ध हुए।

 बालक रविदास बाल्यकाल  से विलक्षण प्रतिभा के धनी थे ।उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी के शिक्षक पंडित शारदा नंद की पाठशाला  मे हुई। उस समय नीची जाति के लोगों को पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं था, इसलिए रविदास के विद्यालय जाने का स्वर्ण जाति के लोगों ने विरोध किया परंतु उनकी प्रतिभा को देखकर गुरु पंडित शारदानंद ने उन्हें प्रवेश दे दिया। रविदास पढ़ने में बहुत होनहार थे । रविदास ईश्वर में असीम श्रद्धा रखते थे और मानव मात्र को एक समान समझते थे। उनका कहना था कि दुनिया में भाईचारा होना चाहिए और अपने पड़ोसियों से बिना भेदभाव प्यार करना चाहिए ।वे लोगों को सत्य और धर्म की शिक्षा देने लगे जिसकी शिकायत उच्च जाति के लोगों ने वहां के राजा से की, जिसके कारण उन्हें भगवान के बारे में बात करने व उपदेश देने से रोक दिया।

 वे बहुत बहादुर तार्किक, आस्थावान ,दार्शनिक व समाज सुधारक थे एवं निर्गुण परंपरा के संत थे । वे महात्मा कबीर के समकालीन थे ।उनके गुरु स्वामी रामानंद थे ।उन्होंने लोगों को शांति और प्रेम से बिना दुख व भेदभाव के रहने के लिए बेगमपुरा नाम का गांव बसाया था जहा सबके प्रति समान   व्यवहार   था।प्रसिद्ध संत मीराबाई उन्हें अपना सद्गुरु मानती थी और  गुरु महिमा गाते हुए कहती थी कि ” गुरु मिलिया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी, चोट लगी निज नाम हरि की मारे हिवरे खटकी”। महात्मा रविदास को लेकर अनेक चमत्कारों के बारे में बताया जाता है। उनके अध्यापक पंडित शारदानंद के पुत्र से उनकी गहरी दोस्ती हो गई और वे साथ साथ खेलते थे ।एक बार छुपा छुपी का खेल खेलते हुए अंधेरा पड़ने के कारण खेल अधूरा रह गया। दूसरे दिन रविदास इंतजार करते रहे पर उनका दोस्त नहीं आया। तब वे दोस्त के घर पर गये तो उसके पिता ने बताया कि उसकी मृत्यु हो गई है और लाश दिखाइ ।तब रविदास ने दोस्त को आवाज दी की यह सोने का समय नहीं है, उठो यह खेलने का समय है। इतना कहते ही उनका दोस्त खड़ा हो गया। रविदास को धन दौलत से बिल्कुल लगाव नहीं था और जूते बना कर परिवार चलाते थे। कहते हैं एक बार भगवान ने उनकी परीक्षा लेने के लिए दार्शनिक का वेष कर उनकी परीक्षा लेने के लिए पारस पत्थर देने की कोशिश की और कहा कि इस पत्थर के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। आप इसे रख लो औरजितना चाहो उतना धन दौलत इकट्ठा करो और आराम से जिंदगी गुजारो पर रविदास ने वो पत्थर नहीं लिया। अंत में उस दार्शनिक ने वह पत्थर उनकी झोपड़ी में रखने का आग्रह किया तो उन्होंने झोपड़ी में रख दिया। वर्षों बाद वह दार्शनिक लौटा तो देखा कि पत्थर उसी स्थान पर रखा हुआ है और रविदास ने उसे छुआ तक नहीं। उनका एक मित्र ब्राह्मण था जिसकी उनके साथ गहरी दोस्ती थी।ब्राहमण का यह मेल मिलाप ऊंची जाति के लोगों को  नागवार गुजरता था। इसलिए उन्होंने राजा से शिकायत की , राजा ने उस ब्राहमण दोस्त को भूखे शेर के सामने खाने के लिए छोड़ने का हुक्म दिया। भूखा शेर दोस्त की ओर बढ़ा ही था कि रविदास को देखकर शांत हो गया और वापस लौट गया। यह सब देख कर राजा व ऊंची जाति के लोग बहुत शर्मिंदा हुए ।एक बार कुछ ब्राह्मण गंगा यात्रा को जा रहे थे तो रविदास ने जूते बनाने की कुंडी मे से  एक टका गंगा को अर्पण करने हेतु दिया। ब्राह्मण ने जब वो सिक्का गंगा नदी में डालना चाहा तो गंगा के पानी मेसे हाथ निकला और टका लिया एवं बदले में सोने का एक कंगन रविदास के लिये दिया। रविदास कहते थे कि स्नान व पूजा पाठ से शुद्धि नहीं होती है। वे कहते थे की मन चंगा तो कटोती में गंगा है। रविदास जी के लिखें 41 पद गुरु ग्रंथ साहब में शामिल किए हैं। उन्होंने मुगल सम्राट बाबर के अहंकार को मिटाया जिससे उसका हृदय परिवर्तन हुआ था। एक मुस्लिम सजना पीर उन्हें इस्लाम की शिक्षा देने आया परंतु वह रविदास जी से धर्म चर्चा कर इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपना धर्म छोड़कर सनातन धर्म अपना लिया। रविदास मानवतावादी संत थे, वे कहते थे कि थोथा पंडित थोथी वाणी, थोथी धरम कहानी। वे ब्राह्मणवाद को झूठा मानते थे, आज से 700 वर्ष पहले ऐसा कहना बहुत बड़ी बात थी। वे दिखावे का हमेशा विरोध करते थे और कहते हैं कि तीरथ व्रत करें ना भाई, सांचौ मन हरि के गुण गाई। रविदास जाति विहीन समाज के पक्षधर थे इसलिए सवर्ण लोगों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। उनका मानना था कि” एक माटी के सबे भांडे ,सब को एके सिरजनहार, रैदास व्यापे एको  घट भीतर ,सब को एके गढे कुम्हार”। जब सबको बनाने वाला एक ही परमात्मा सबके ह्रदय में वास करता है, फिर भेदभाव किस बात का। रविदास समानता के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने समाज को अन्याय शोषण अत्याचार और भेदभाव से मुक्त करने का सतत प्रयास किया और आजीवन पाखंड वाद से लड़ते रहे। उनके के भजन दोहे व पद जन-जन में लोकप्रिय है। वे भारत की संत परंपरा के देदीप्यमान सितारे माने जाते हैं ।रविदास कहते थे  ” ऐसा चाहू राज में जहां सबन को मिले अन्न, ऊंच-नीच सब सम बसे, रविदास रहे प्रसन्न”!उनकी शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक है और देशभर में उनके लाखों  अनुयायी उनकी शिक्षाओं को पूरी श्रद्धा से गीत दोहो व भजनों के माध्यम गाते हैं और अनुसरण करते हैं। ऐसे महान तपस्वी संत और सामाजिक जागृति के प्रतीक रविदास महाराज को शत शत नमन।                         लेखक

एम एल डांगी

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